Tuesday, August 26, 2008

श्रद्धांजलि - जनाब श्री अहमद फ़राज़ साहब (1931-2008)

कल (25 अगस्त, 2008) उर्दू अदब के एक स्वर्णिम अध्याय का दुःखद अंत हो गया! जनाब श्री अहमद फ़राज़ साहब हमारे बीच नही रहे! उन्होने इस्लामाबाद के एक अस्पताल में अंतिम सासें लीं! खुदा उनकी रूह को तस्कीन-ए-अर्श बक्शे!

अबके हम बिछडे तो शायद कभी ख्वाबों में मिलें,
जिस तरह सूखे हुए फूल किताबों में मिलें

ढूंढ उजडे हुए लोगों में वफ़ा के मोती,
ये खज़ाने तुझे मुमकिन है खराबों में मिलें

तू खुदा है ना मेरा इश्क फ़रिश्तों जैसा,
दोनो इन्सां हैं तो क्यो इतने हिजाबों में मिलें

गम-ए-दुनिया भी गम-ए-यार में शामिल कर लो,
नशा बढता है शराबें जो शराबों में मिलें

आज हम दार पे खैंचे गए जिन बातों पर,
क्या अजब कल वो ज़माने को निसाबों में मिलें

अब न वो मैं हूं न तू है न वो माज़ी है "फ़राज़",
जैसे दो शक्स तमन्ना के सराबों में मिलें

_______________जनाब अहमद फ़राज़ साहब



तेरी तहरीर में हर शक्स का चेहरा है "फ़राज़",
तेरे सागर में हर इक बूंद है गौहर कोई...

शत शत नमन उर्दू के इस महान उपासक को!!

Friday, August 15, 2008

जश्न-ए-आज़ादी पर...

बहुत समय पहले ये रचना लिखी थी और आज इस निवेदन के साथ इसे प्रेषित कर रहा हूं कि ये सर्वथा मेरा निजी खयाल है...
चलो सुबह की ओर चलें हम
अंधियारे को मिटाना होगा,
बहुत दिनो हम रूठ चुके
अब मिलकर साथ निभाना होगा

खून से सिंचित हुई धरा थी
तब फ़सलें लहलाई थीं,
आज़ादी का पाठ शुरू से
दोनो को दोहराना होगा

बिखर गई थी मानवता
जब जंगें तीन लडी हमने,
हाथ में लेके अमन पताका
अब हिंसा को हराना होगा

एक दूजे पर साधे हैं हम
व्यर्थ ही अग्नि गोरी को,
परमाणु शक्ती को घर घर
बिजली बन दौडाना होगा

’स्वर्ग अंश’ पर खून खराबा
करके हमने क्या पाया,
मेल-मिलाप बढाकर अब तो
सरहद को झुठलाना होगा

बस और ट्रेन तो चल ही चुकी है
अब दरकार बची इतनी,
पासपोर्ट वीसा नियमों को
ताक पे रखते जाना होगा

उधर शोएब ’और अफ़रीदी तो
इधर भी हैं सहवाग सचिन,
साथ में लाकर इनको अब
दुनिया को धूल चटाना होगा

"रंजन" जिस दिन खडे हो गए
’दोनो’ हाथों को थामे,
हिन्द-पाक का जयकारा फिर
अखिल विश्व को गाना होगा

Sunday, August 10, 2008

पौधे से जुदा होकर...

वो यूं तो मुस्कुराता है मगर सहमा हुआ होकर,
सजा है फूल गुलदस्ते में पौधे से जुदा होकर

मेरी तकलीफ़ का एहसास उसको है तभी शायद,
उडा जाता है अश्कों को फ़िज़ाओं में सबा होकर

फ़कत पल भर ही देखा और नज़रें फेर लीं गोया,
बची हों कुछ अदाएं बेवफ़ाई में वफ़ा होकर

यहां बरसात के मौसम भी अब कुछ ऎसे लगते हैं,
कि पी रखी है काले बादलों ने गमज़दा होकर

बताया था मुझे ये राज़ कल शब एक वाइज़ ने,
’अगर मैखाने में जाओ तो आना पारसा होकर’

मेरी पत्थर निगाहें भी न जाने क्यूं छलक उठीं,
जो सर पे हाथ फेरा था मेरी मां ने खुदा होकर

कभी मां बाप की बातों को ना अदना समझ लेना,
कि उनकी तल्खियां भी लौट आतीं हैं दुआ होकर

मेरी रूदाद के हर एक किस्से में हो तुम शामिल,
कभी इक हादसा होकर कभी इक रास्ता होकर

चुभन होती है अब दोनो तरफ़ कांटों के तारों से,
कि मुद्दत हो गई है सरहदों को यूं खफ़ा होकर

बचा लेना मुझे उन पत्थरों की चोट से "रंजन".
मैं जीना चाहता हूं सिर्फ़ तेरा आईना होकर

Sunday, August 3, 2008

ये इश्क इश्क है इश्क इश्क...


सागर में कहीं डूब ग‌ई मय तो इश्क है,
आरा‌इशों में कैद हु‌ई शै तो इश्क है
दर्द-ओ-फ़ुगां यहां पे को‌ई चीज़ ही नही,
कांटों में अगर जश्न लगा है तो इश्क है

रुसवा अगर ये ज़ीस्त हु‌ई, इश्क नही है,
रूहों में अगर हिज्र हु‌ई, इश्क नही है
छूने से फ़कत साथ जो महसूस हो बिस्मिल,
पलकों में नही बंद को‌ई, इश्क नही है

जब भी अना रकीब लगे, इश्क वहीं है
हर फ़ासला करीब लगे, इश्क वहीं है
शाहिद हो मेरा शाद सिर्फ़ एक दु‌आ हो,
ईसा नफ़स सलीब लगे, इश्क वहीं है

बदमस्त सा खुमार मेरे यार इश्क में
बिजली की बादलों में है झनकार इश्क में,
बस जिस्म और अना को हटाकर तो देखि‌ए,
अल्लाह ही दिखेगा जिधर यार इश्क में

आरा‌इश-ए-बहार, इश्क कर के देखि‌ए
ताबीर-ए-ख्वाब-ए-यार, इश्क कर के देखि‌ए
शोले से गुल बनी है जहां सीरत-ए-आदम,
"मैं" खुद हूं इश्तेहार, इश्क कर के देखि‌ए

Sunday, July 27, 2008

झूमते मैखाने में...


तल्ख है जाम तो शीरीन बना लेता हूं,
गमों के दौर में चेहरे को सजा लेता हूं

हर‌एक शाम किसी झूमते मैखाने में,
मैं खुद को ज़िन्दगी से खूब छिपा लेता हूँ

कहीं फरेब न हो जा‌ए उनकी आँखों से,
मैं अपने जाम में दो घूँट बचा लेता हूँ

गली में खेलते बच्चों को देखकर अक्सर,
मैं खुद को ज़िन्दगी के तौर सिखा लेता हूँ

इसी उम्मीद में कि नींद अब ना टूटेगी,
बस एक ख्वाब है, पलकों पे सजा लेता हूँ

सुलगती आग के धु‌एँ में बैठके अक्सर,
मैं अपने अश्क पे एहसान जता लेता हूँ

चुका रहा हूँ ज़िन्दगी की किश्त हिस्सों में,
मैं आंसु‌ओं को क‌ई बार बहा लेता हूँ

तमाम फिक्र-ए-मसा‌इल हैं मुझसे वाबस्ता,
कलम से रोज़ न‌ए दोस्त बना लेता हूँ

मेरे नसीब में शायद यही इबादत है,
वज़ू के बाद काफ़िरों से दु‌आ लेता हूं

तमाम ज़ख्म मिल चुके हैं इन बहारों से,
मैं अब खिज़ान तले काम चला लेता हूँ

जला रहे वो चिरागों को, चलो अच्छा है,
उन्ही को सोच के सिगरेट जला लेता हूँ

खुदा का शुक्र है नशे में आज भी "रंजन",
मैं पूछने पे अपना नाम बता लेता हूँ

Saturday, July 19, 2008

सवालों की उलझन...


हर_इक आरज़ू को खता मानते हैं,
तुम्हारी कमी को सज़ा मानते हैं

किसी गाम ठोकर लगेगी उन्हे भी,
जो इन पत्थरों को खुदा मानते हैं

कभी उन अंधेरों से जाकर तो पूछो,
उजालों को क्यूं बेवफ़ा मानते हैं

न‌ए दौर के हैं ये अहल-ए-मुहब्बत,
जो चेहरे बदलना अदा मानते हैं

चलो गांव में ही ठहाके लगा‌एं,
यहां मुस्कुराना बुरा मानते हैं

वही बेखुदी है वही बेकरारी,
वही एक चेहरा दवा मानते हैं

मेरी कब्र पे दर्ज़ करना ये "रंजन",
"ज़माने से खुद को जुदा मानते हैं"

Saturday, July 12, 2008

शायद नही है...


शहर में गांव सा मंज़र नही है,
समंदर है मगर कौसर नही है

ज़रा एहसास की शम्मा जला‌ओ,
जो अंदर है अभी बाहर नही है

जो दश्त-ए-गैर को पुरनम न कर दे,
वो कतरा आब है गौहर नही है

अगर हो बदगुमां तो आज़मालो,
यहां बस फूल हैं पत्थर नही है

ज़मीं पे जिस्म के टुकडे पडे थे,
वहां मस्जिद नही... मन्दिर नही है

ज़मीं है आसमां है ज़िन्दगी है,
ये बातें और हैं की घर नही है

बता देता हूं यारों एहतियातन,
कलम आवाज़ है खंजर नही है

ये तेरे इश्क की शिद्दत है "रंजन",
तुझे वो दिख रहा है पर नही है