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तल्ख है जाम तो शीरीन बना लेता हूं,
गमों के दौर में चेहरे को सजा लेता हूं
हरएक शाम किसी झूमते मैखाने में,
मैं खुद को ज़िन्दगी से खूब छिपा लेता हूँ
कहीं फरेब न हो जाए उनकी आँखों से,
मैं अपने जाम में दो घूँट बचा लेता हूँ
गली में खेलते बच्चों को देखकर अक्सर,
मैं खुद को ज़िन्दगी के तौर सिखा लेता हूँ
इसी उम्मीद में कि नींद अब ना टूटेगी,
बस एक ख्वाब है, पलकों पे सजा लेता हूँ
सुलगती आग के धुएँ में बैठके अक्सर,
मैं अपने अश्क पे एहसान जता लेता हूँ
चुका रहा हूँ ज़िन्दगी की किश्त हिस्सों में,
मैं आंसुओं को कई बार बहा लेता हूँ
तमाम फिक्र-ए-मसाइल हैं मुझसे वाबस्ता,
कलम से रोज़ नए दोस्त बना लेता हूँ
मेरे नसीब में शायद यही इबादत है,
वज़ू के बाद काफ़िरों से दुआ लेता हूं
तमाम ज़ख्म मिल चुके हैं इन बहारों से,
मैं अब खिज़ान तले काम चला लेता हूँ
जला रहे वो चिरागों को, चलो अच्छा है,
उन्ही को सोच के सिगरेट जला लेता हूँ
खुदा का शुक्र है नशे में आज भी "रंजन",
मैं पूछने पे अपना नाम बता लेता हूँ
हर_इक आरज़ू को खता मानते हैं,
तुम्हारी कमी को सज़ा मानते हैं
किसी गाम ठोकर लगेगी उन्हे भी,
जो इन पत्थरों को खुदा मानते हैं
कभी उन अंधेरों से जाकर तो पूछो,
उजालों को क्यूं बेवफ़ा मानते हैं
नए दौर के हैं ये अहल-ए-मुहब्बत,
जो चेहरे बदलना अदा मानते हैं
चलो गांव में ही ठहाके लगाएं,
यहां मुस्कुराना बुरा मानते हैं
वही बेखुदी है वही बेकरारी,
वही एक चेहरा दवा मानते हैं
मेरी कब्र पे दर्ज़ करना ये "रंजन",
"ज़माने से खुद को जुदा मानते हैं"
शहर में गांव सा मंज़र नही है,
समंदर है मगर कौसर नही है
ज़रा एहसास की शम्मा जलाओ,
जो अंदर है अभी बाहर नही है
जो दश्त-ए-गैर को पुरनम न कर दे,
वो कतरा आब है गौहर नही है
अगर हो बदगुमां तो आज़मालो,
यहां बस फूल हैं पत्थर नही है
ज़मीं पे जिस्म के टुकडे पडे थे,
वहां मस्जिद नही... मन्दिर नही है
ज़मीं है आसमां है ज़िन्दगी है,
ये बातें और हैं की घर नही है
बता देता हूं यारों एहतियातन,
कलम आवाज़ है खंजर नही है
ये तेरे इश्क की शिद्दत है "रंजन",
तुझे वो दिख रहा है पर नही है
मेरी मंज़िल हो राहबर तुम हो,
सियाह रात के अख्तर तुम हो
कहीं हो गूंज शंख नादों की,
कहीं नमाज़ का मंज़र तुम हो
जो खो गया तो पा लिया तुमको,
मेरे अंदर मेरे बाहर तुम हो
सफ़र जो दश्त से गुज़रता है,
मेरी उम्मीद का सागर तुम हो
उतर गए हो इस कदर गोया,
कोई नश्तर कोई खंजर तुम हो
भला कैसे गुमान हो उसको,
लिखे "रंजन" मगर शायर तुम हो