Sunday, August 10, 2008

पौधे से जुदा होकर...

वो यूं तो मुस्कुराता है मगर सहमा हुआ होकर,
सजा है फूल गुलदस्ते में पौधे से जुदा होकर

मेरी तकलीफ़ का एहसास उसको है तभी शायद,
उडा जाता है अश्कों को फ़िज़ाओं में सबा होकर

फ़कत पल भर ही देखा और नज़रें फेर लीं गोया,
बची हों कुछ अदाएं बेवफ़ाई में वफ़ा होकर

यहां बरसात के मौसम भी अब कुछ ऎसे लगते हैं,
कि पी रखी है काले बादलों ने गमज़दा होकर

बताया था मुझे ये राज़ कल शब एक वाइज़ ने,
’अगर मैखाने में जाओ तो आना पारसा होकर’

मेरी पत्थर निगाहें भी न जाने क्यूं छलक उठीं,
जो सर पे हाथ फेरा था मेरी मां ने खुदा होकर

कभी मां बाप की बातों को ना अदना समझ लेना,
कि उनकी तल्खियां भी लौट आतीं हैं दुआ होकर

मेरी रूदाद के हर एक किस्से में हो तुम शामिल,
कभी इक हादसा होकर कभी इक रास्ता होकर

चुभन होती है अब दोनो तरफ़ कांटों के तारों से,
कि मुद्दत हो गई है सरहदों को यूं खफ़ा होकर

बचा लेना मुझे उन पत्थरों की चोट से "रंजन".
मैं जीना चाहता हूं सिर्फ़ तेरा आईना होकर

11 comments:

Vinay said...

रंजन जी कमाल कर दिया, क्या ख़ूबसूरत ग़ज़ल लिखी है, यह वाहवाही बेवजह नहीं!

Udan Tashtari said...

मेरी पत्थर निगाहें भी न जाने क्यूं छलक उठीं,
जो सर पे हाथ फेरा था मेरी मां ने खुदा होकर


--गजब भाई...बहुत उम्दा.

Atul Pangasa said...

यूं तो मुस्कुराता है मगर सहमा हुआ होकर,
सजा है फूल गुलदस्ते में पौधे से जुदा होकर
Khoobsoorat aaghaaz......
यहां बरसात के मौसम भी अब कुछ ऎसे लगते हैं,
कि पी रखी है काले बादलों ने गमज़दा होकर

बताया था मुझे ये राज़ कल शब एक वाइज़ ने,
’अगर मैखाने में जाओ तो आना पारसा होकर’
Wah wah....... aapka is subject pe to koii saani ho hi nahin sakta :)

मेरी पत्थर निगाहें भी न जाने क्यूं छलक उठीं,
जो सर पे हाथ फेरा था मेरी मां ने खुदा होकर

Jazbaat ki inteha....
ek ashq mere rukhsaar par kab aa gaya maaloom N chala
MuJHe apni ma ke pyaar par kyoN baarhaan pyaar aa gaya maloom N chala
कभी मां बाप की बातों को ना अदना समझ लेना,
कि उनकी तल्खियां भी लौट आतीं हैं दुआ होकर

Main kaun kaun sa sher chunu!!!
Khuda aapki kalam ko youn hi raushan rakhe...

नीरज गोस्वामी said...

कभी मां बाप की बातों को ना अदना समझ लेना,
कि उनकी तल्खियां भी लौट आतीं हैं दुआ होकर
मेरी रूदाद के हर एक किस्से में हो तुम शामिल,
कभी इक हादसा होकर कभी इक रास्ता होकर
चुभन होती है अब दोनो तरफ़ कांटों के तारों से,
कि मुद्दत हो गई है सरहदों को यूं खफ़ा होकर
सुभान अल्लाह रंजन साहेब....बेहद खूबसूरत ग़ज़ल लिखी है आपने...मेरी दिली दाद कुबूल कीजिये...आप के तेवर बताते हैं की आप शायरी में बहुत ऊंचा मुकाम हासिल करेंगे एक दिन...हमारी दुआएं आप के साथ हैं..
नीरज

डॉ .अनुराग said...

कभी मां बाप की बातों को ना अदना समझ लेना,
कि उनकी तल्खियां भी लौट आतीं हैं दुआ होकर

मेरी रूदाद के हर एक किस्से में हो तुम शामिल,
कभी इक हादसा होकर कभी इक रास्ता होकर

चुभन होती है अब दोनो तरफ़ कांटों के तारों से,
कि मुद्दत हो गई है सरहदों को यूं खफ़ा होकर

बचा लेना मुझे उन पत्थरों की चोट से "रंजन".
मैं जीना चाहता हूं सिर्फ़ तेरा आईना होकर




सुभान अल्लाह......बस मुंह से दाद ही निकलती है...क्या लिखा है ओर कितना खूबसूरत लिखा है.....

श्रद्धा जैन said...

मेरी पत्थर निगाहें भी न जाने क्यूं छलक उठीं,
जो सर पे हाथ फेरा था मेरी मां ने खुदा होकर

कभी मां बाप की बातों को ना अदना समझ लेना,
कि उनकी तल्खियां भी लौट आतीं हैं दुआ होकर



wah bhaut sunder sher hain

रंजू भाटिया said...

कभी मां बाप की बातों को ना अदना समझ लेना,
कि उनकी तल्खियां भी लौट आतीं हैं दुआ होकर

मेरी रूदाद के हर एक किस्से में हो तुम शामिल,
कभी इक हादसा होकर कभी इक रास्ता होकर

बेहद खुबसूरत बात कही आपने ..ईश्वर और माँ बाप की दुआ जिस तरह आपने बयान करी है वह दिल में बसा लेने लायक है
आपकी लिखा पढ़ कर हमेशा लगा है कि इन खुबसूरत लफ्जों को आवाज़ मिल जाए तो यह सोने पर सुहागा वाली बात हो जायेगी ...

Anonymous said...

बहुत बढ़िया मेरे गोरखपुरी भैया

उत्पल कान्त मिश्रा "नादां" said...

ek aur umda kalaam ... yeh sher khaas acche lage

वो यूं तो मुस्कुराता है मगर सहमा हुआ होकर,
सजा है फूल गुलदस्ते में पौधे से जुदा होकर

yeh agaaz yeh matla to dil ko andar tak choo gaya ....


मेरी तकलीफ़ का एहसास उसको है तभी शायद,
उडा जाता है अश्कों को फ़िज़ाओं में सबा होकर

masa allah ... bahut khoob .... goya ki aag idhar bhi aur udhar bhi ...


यहां बरसात के मौसम भी अब कुछ ऎसे लगते हैं,
कि पी रखी है काले बादलों ने गमज़दा होकर

बताया था मुझे ये राज़ कल शब एक वाइज़ ने,
’अगर मैखाने में जाओ तो आना पारसा होकर’

bada soofiyaana khayaal darz kiya hai ismain jaab ....Irshaad

मेरी पत्थर निगाहें भी न जाने क्यूं छलक उठीं,
जो सर पे हाथ फेरा था मेरी मां ने खुदा होकर

कभी मां बाप की बातों को ना अदना समझ लेना,
कि उनकी तल्खियां भी लौट आतीं हैं दुआ होकर

afreen ... duniya ka sabse bada sach ......kis khoobsoorat andaaz main bayan kiya hai aapnain ... subhan allah ... khuda ka karm rahe aa par hamesha ...

बचा लेना मुझे उन पत्थरों की चोट से "रंजन".
मैं जीना चाहता हूं सिर्फ़ तेरा आईना होकर


mujhe to yeh maqta bhi soofiyaana lag raha hai janab :)

behad umda kalaam ..... har sher jaisai bolta hai dil ki jubaan

Rahul Jain said...

kya baat hai sir...bahut umda likha hai..zehen me abhi tak goonj rahi hai ye gazal..

Purnima said...

bahut accha likha hai sir
main toh aapki fan hun hi......